डाकू गब्बर को मारनेवाला
छ्ग का पुलिसवाला आरपी और
फ़िल्म ‘शोले’ में गब्बर नामकरण.. !
{किश्त 255}
अच्छी सरकारी नौकरी पाने के लिए युवा का होनहार, काबिल, दूसरे उम्मीदवारों से बेहतर होना ही पर्याप्त नहीं होता नियुक्तिपत्र जारी होने से पहले अंतिम बाधा होती है पुलिस द्वारा जमा की गयी चरित्र, चाल चलन या पृष्ठभूमि की रिपोर्ट। कम से कम दो अवसरों पर तब के मुख्यमंत्रियों ने व्यक्तिगत हस्तक्षेप पर दो अफसरों के करियर को पुलिस रिपोर्ट की बलि चढ़ने से बचाया था। सारंगढ़ राजपरिवार के दामाद डॉ परिवेश मिश्रा की महत्वपूर्ण जानकारी उन्ही के शब्दों में….भारत को आज़ादी मिले दो वर्ष हुए थे जब रायगढ़(छग) के नटवर स्कूल से निकल कर आरपी मोदी नागपुर के ही माॅरिस काॅलेज में पढ़ने पहुंचे।तब देश की सत्ता उन नेताओं के हाथों में थी जो आने वाली पीढ़ी को देश की बाग डोर संभालने के लिए तैयार करना उनमें प्रतिभावानोंको शिक्षित और प्रोत्साहित करना अपना परम कर्तव्य समझते थे। 50 के दशक में नये भारत के निर्माण में नयी पीढ़ी के योगदान का जज़्बा उफ़ान पर था।नेहरू और शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने शिक्षा के साथ युवकों के गैर-शैक्षणिक विकास पर भी बहुत ध्यान दिया था।1960 की फिल्म “नयी उमर की नयी फसल” इसी थीम पर निर्मित थी (कवि गीतकार गोपालदास नीरज के मशहूर “और हम खड़े खड़े गुबार देखते रहे” गीत वाली फिल्म)। कालेजों और विश्वविद्यालयों में एन सीसी पर बहुत जोर दिया था, युवकों में इसका बहुत क्रेज़ था। 26 जनवरी 50 के दिन दिल्ली के राजपथ पर पहली बार परेड शुरू हुई। देश में उसका ज़बर्दस्त क्रेज़ बन गया था। इस परेड में देश के एनसीसी कैडेट्, छंटे हुए युवकों की टुकड़ी परेड का बड़ा आकर्षण होती थी। परेड में सर्वश्रेष्ठ चुने गये कैडेट जवाहरलाल नेहरू भेंट करते और अपने हाथों से उसे पुरस्कृत करते थे, एक परेड में युवा राजेंद्र प्रसाद मोदी को सर्वश्रेष्ठ एनसीसी कैडेट चुना गया था। नेहरू ने उन्हे चाय पर निमंत्रित कर ट्राॅफी प्रदान की थी। उन दिनों देश के चयनित प्रतिभावान युवकों में नेतृत्व के गुण विकसित करने के इरादे से समय समय पर दुनिया के विभिन्न देशों की यात्राओं पर भेजा जाता था। 5 सदस्यीय युवाओं के शिष्टमंडल को मोदी के नेतृत्व में ब्रिटेन भेजा गया। क्वीन ऐलिज़ा बेथ के अलावा पीएम समेत बड़े नेताओं के साथ मुलाकातें हुईं।राजेन्द्रप्रसाद मोदी पढ़ाई में भी होशियार थे। सो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ जब सिविल सर्विसेज़ के इम्तिहान में ये आईपीएस के लिए चयनित हो गये। लेकिन इसके बाद रोल शुरू हुआ पुलिस का। गांधी की हत्या के बाद 4 फरवरी 1948 को सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को बैन कर दिया था। संघ के नेता या तो जेल में डाले गये थे या भूमिगत/फ़रार हो गये थे। नागपुर एपी सेन्टर (केन्द्र बिन्दु) था। बाद में बैन हटा पर इस बीच अनेकों ने इससे दूरी बना ली थी। देश के आम जनमानस में आरएसएस की छवि अच्छी नहीं थी। संगठन की सामाजिक स्वीकार्यता भी नहीं रही थी। मोदी के बारे में माना गया था कि वे आरएसएस की शाखाओं में जाते रहे थे। पुलिस जांच में इसका उल्लेख आते ही उनके नियुक्ति पत्र को रोक लिया गया था। मोदी,सीधे सीपी एंड बरार के सीएम रविशंकर शुक्ल के दफ्तर में पहुंच गये।अपनी कहानी भी सुनायी।शुक्ल ने भी दिलासा देने के साथ राज्य सेवाओं की परीक्षा में बैठने की सलाह दी। कोई युवक इस तरह धड़धड़ाते सीएम के कार्यालय में घुस जाए और सीएम टोकने याडांटने की बजाए बैठा कर करियर काउंसलिंग करने लगें यह भी उस ज़माने में अजीब बात नहीं थी। मुला कात में मोदी ने आरएसएस के साथ अपने संबंधों को लेकर क्या कहा इसकी जानकारी तो उन दोनों के बीच ही रह गयी। लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि सर कार ने बाधाएं हटा ली और मोदी के रूप में मप्र कोएक जांबाज़ डीएसपी मिलगया।1950 के दशक में चम्बल में डाकू ‘गब्बरसिंह’ काबड़ा आतंक था।गब्बर को किसी तांत्रिक ने बताया था यदि यह 101 बच्चों की नाक काटकर ईष्ट देवी को अर्पित करे तो अमर हो जायेगा,
उसे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस ने उस समय का 50 हज़ार का इनाम भी घोषित किया था। पुलिस ने इस डाकू को समाप्त करने के लिए एक विशेष दल का गठन किया।मुखिया बनाया गया 26 वर्षीय डीएसपी राजेंद्र प्रसाद मोदी को। कई दिनों की लुका छिपी के बाद 13 नवम्बर 1959 के दिन भिंड जिले में घूमका पुरा नामक गांव के पास खुले मैदान में पुलिस-गब्बर सिंह का आमना सामना हुआ। तब तक भारत में “एनकाउंटर युग” प्रारम्भ नहीं हुआ था। गोली चलाने से पहले अपराधी डाकू को आत्म समर्पण का ऑफर दिया जाता था।यह प्रयास हुआ पर असफल रहा।घंटों की भीषण गोलाबारी हुई। मैदान की एक ओर नेशनल हाई-वे है, दूसरी ओर रेल्वे लाईन। सड़क पर बस-कार जैसे वाहन और पटरी पर ट्रेन खड़ी हो गयी। बसों और ट्रेन की छत पर चढ़ कर लोग इस मुठभेड़ को देखते रहे।शाम होने को थी और गब्बर को अंधेरे का लाभ मिलने की संभावना बन रही थी। तभी मोदी सामने आ गये और उस खुले मैदान में गब्बर को आमने सामने की मुठभेड़ में मार गिराया। गब्बर,तब तक केवल 19 नाक ही अर्पित कर पाया था। इस मुठभेड़ में कुल 13 दस्यु मारे गये, पूरा गैंग समाप्त हो गया। तब मप्र,उप्र,राज स्थान के बड़े इलाके में विशेषकर माताओं ने चैन की सांस ली। राजेन्द्र मोदी को वीरता के लिए राष्ट्रपति ने देश में पुलिस को दिया जाने वाला “प्रेसिडेंट्स पोलिस एन्ड फायर सर्विस मेडल फॉर गैलेन्टरी” पुर स्कार दिया। कुछ वर्षों में ही मोदी को आईपीएस अवाॅर्ड किया गया, आगे चलकर वे मप्र में आईजी के पद से सेवानिवृत्त हुए। मोदी के मामले में पुलिस पर “दुर्भावना” का आरोप नहीं लग सकता। किन्तु 1972 में राजस्थान में एक केस में पुलिस की अज्ञानता (और संभावित दुर्भावना) की बुनियाद पर दूसरे अधि कारियों ने नकारने कामहल खड़ा किया था। उन दिनों बरकतुल्ला खान (9 जुलाई 1971-11 अक्टूबर 1973 तक)राज्य के सीएम थेएक दिन उनसे मिलने पुराने परि चितआये। बेटे की नौकरी का मामला था। बताया कि दूसरों की नियुक्ति केआदेश निकल गये हैं किन्तु बेटे के रोक लिये गये हैं।सीएम ने जानकारी ली तो पता चला पुलिस जांच रिपोर्ट उम्मीद वार के विरुद्ध है। संयोग से जिस युवक का मामला था परिवार से बरकतुल्ला के घनिष्ठ संबंध रहे थे,वे युवक को उसके बचपन से जानते थे। निहायत शरीफ़ और ज़हीन युवक था। उसका पुलिस रिकाॅर्ड खराब है यह बात उनके गले नहीं उतर रही थी। उन्होने इस केस की फ़ाईल अपने पास बुलवा ली। शुरुआत में ही दिखा कि गृहसचिव ने नियुक्ति के विरुद्ध राय दी थी, पुलिस की एडवर्स रिपोर्ट को ही अपनी राय का आधार बनाया था,पन्ने पलटे तो यही राय डिप्टी सेक्रेट्री, अंडर सेक्रेट्री और दूसरों की भी थी। फ़ाईल बहुत मोटी थी किन्तु सीएम भी हार मानने वाले नहीं थे। पन्ने पलटते गये, थानेदार की रिपोर्ट तक पहुंचे। थानेदार ने इस युवक को “बदचलन” लिखा था। यह वह काल था जब पुलिस,राजस्व मह कमों में फारसी और उर्दू का चलन पूरे शबाब पर था।चालान, पेशी, मुखबिर, मुहर्रिर(रिकॉर्ड रखनेवाला), तफ्तीश (जांच), तामील (पालन),दरयाफ्त (पूछ ताछ), फेहरिस्त (सूची), सज़ायाफ्ता (सज़ा काट चुका व्यक्ति),मुद्दई (शिका यत कर्ता),मुल्ज़िम,दीवानी, फ़ौजदारी,मुअत्तल (निलं बित), मुआईना (निरीक्षण), और फौत (मृत्यु) जैसे शब्द तो आज भी खूब चलन में हैं। लेकिन उन दिनों लिखने के लिये उर्दू की लिपि का उपयोग भी गाहे बगाहे कर लिया जाता था। अंग्रेज़ तो पुलिस अधिकारियों को बाकायदा उर्दू की शिक्षा दे कर ही पोस्टिंग पर भेजते थे। भारत में शिक्षा तो नहीं दी गयी पर अधिकारियों से अपेक्षा की गयी कि कम से कम थोड़ा बहुत ज्ञान तो स्वयं अर्जित कर ही लेंगे।बरकतुल्ला जिस केस के कागज़ात देख रहे थे उसमें थानेदार ने अपनी रिपोर्ट के लिए आधार बनाया था उस हेड-काॅन्सटेबल की फील्ड -रिपोर्ट, जो मौके पर जांच के लिए गया,बरकतुल्ला अवाक् रह गये जब उन्होने पढ़ा कि हेड- काॅन्सटेबल ने रिपोर्ट में “चाल चलन ठीक” लिखा था। गड़बड़ बस यह हुई थी कि हेड- काॅन्सटेबल ने अपनी रिपोर्ट उर्दू मेंलिख कर जमा की थी। थानेदार उर्दू लिपि पढ़ने में कमज़ोर था। बांचने की अधकचरी कोशिश की, हिन्दी में “बद चलन” लिख फाईल आगे बढ़ा दी। संभव है किसी किस्म का पूर्वाग्रह भी काम कर रहा हो। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस लड़के की व्यक्तिगत जान कारी सीएम को होगी, या कि सीएम उर्दू के विद्वान होंगे ( बरकतुल्ला लखनऊ विश्वविद्यालय से कानून के स्नातक थे)। जिस युवक की यह कहानी है वह राज स्थान सरकार में प्रमुख सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए। स्व. राजेंद्र प्रसाद मोदी के शुरुआती दिनों के बारे में मैंने अपने पिता से सुना था।नागपुर में मोदी जिन दिनों विद्यार्थी थे, पिताजी नागपुर के साईन्स काॅलेज में गणित के प्रोफेसर थे। एयरफ़ोर्स अफसर की पृष्ठ भूमि होने के कारण उन्हे नागपुर के सभी कालेजों में नयी प्रारम्भ एनसीसी को स्थापित करने की जिम्मे दारी दी गयी थीबरकतुल्ला खान का लिखा अनुभव पढ़े समय बीत गया। अधि कारी का नाम याद नहीं कर पा रहा हूं। सलीम-जावेद वाले सलीम के पिता मप्र पुलिस की नौकरी में थे। “शोले” में डाकू का नाम “गब्बरसिंह” रखने की प्रेरणा उन्हे पिता से मिली हो तो ताज्जुब नहीं….!